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Wednesday, June 15, 2011

'चौदहवीं का चाँद पर एक दृष्टि' chaudhvin-ka-chand

"Light of Truth" नाम से आज इंग्लिश में मशहूर किताब, कल 1908 में छपे एडिशन में इसका नाम an English translation of Satyarth Prakash लिखा है (1915 तक इस का नाम  Om Light of Truth" रहा  था) आनलाइन उपलब्‍ध 1908 वाले  एडिशन के 33 वर्ष पूर्व  दयानंद सरस्वती (The Luther of India?) ने सन् 1875 में जबकि आपकी मातृभाषा गुजराती और संस्कृत थी, हिन्‍दी भाषा का मामूली ज्ञान होते हुए 'सत्यार्थ प्रकाश' नाम से यह ग्रन्‍थ तैयार किया था,  'लाइट आफ ट्रुथ ' नाम मेरी जानकारी के अनुसार 1956 ' के इंग्लिश एडिशन में ते पाया,
“The Light of Truth, English Translation of Swami Dayanand’s Satyarth Prakasha” by Ganga Prahad Upadhyaya in 1956; the Kala Press, Allahabad. इसके प्रचार से ऐसा लगता है यह  तीसरा नाम अब नहीं बदला जायेगा।
  
सर्व प्रथम यह पुस्‍तक  हिन्‍दी में आयी, आर्य वेबसाइटस से पंजाबी और उर्दू में इसका होना किसी को अब बताया नहीं जाता, आर्यों की बाइबिल कही जानी वाली यह किताब वैदिक भाषा में न लिखी जा सकी?  स्‍वामी जी की मृत्‍यू के बाद 1884 के दूसरे एडिशन में 13 ईसाईयों से और 14 सम्‍मुल्‍लास इस्‍लाम के सम्‍बनध में जोड दिया गया, देखें 'असली सत्‍यार्थ प्रकाश उर्दू ' इसके लिए कई तरह के बहाने बनाये गये थे,  हिन्‍दी में होने पर इसकी परवाह नहीं की गयी लेकिन आम लोगों की भाषा उर्दू में लगभग 23 वर्ष पश्‍चात 1898 में प्रकाशित हुई तब मुसलमानों को इसका जवाब देना लाजिम हो गया, तब मौलाना सनाउल्‍लाह अम़तसरी जिन्‍हों ने मुनाजिरों, मुबाहिसों और कलम के द्वारा आर्य समाज को  लगभग आधी सदी यानि 1948 तक सफलता पूर्वक टक्‍क्‍र दी , उन्‍होंने इसके आखरी कुरआन से सम्‍बन्धित चौदहवें सम्‍मुलास का जवाब  उस समय की हिन्‍दुस्‍तान-पाकिस्‍तान-बंग्‍लादेश की भाषा अर्थात उर्दू में  'हक प्रकाश'  नाम की पुस्‍तक में दिया, जो चमुपति जी के समय में नागरी में भी उपलब्‍ध नहीं था अभी कोई 70 के आसपास हिन्‍दी में उपलब्‍ध हुआ, इसे सारी इस्‍लामी दुनिया में मकबूलियत हासिल हुई और 14वें सम्‍मुल्‍लास का लाजवाब उत्‍तर का दरजा प्राप्‍त हुआ,  वेसे आजादी के बाद रामनगरी की 'दलाइलुल कुरआन'  को भी पसंद गिया है,


हक़ प्रकाश बजवाब सत्‍यार्थ प्रकाश (सन 1900 ई. उर्दू में प्रकाशित )

  • आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती की पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश के चौदहवें अध्याय का अनुक्रमिक तथा प्रत्यापक उत्तर. लेखक: मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी 

         26 साल बाद (सन 1900 ई.) में जवाब क्‍यूं दिया? इस आरोप के जवाब में मौलाना ने लिखा है कि जो समय लगा वह नागरी में लगा उर्दू में जलवा दिखाया तो तुरन्‍त कर्जा उतारा गया, यानि उर्दू में प्रकाशित होने के फोरन बाद ही मौलाना ने इसका जवाब दे दिया था, और कहा यह आरोप तो स्‍वामी जी पर भी है कुरआन उतरे हुए 1300 साल हो गये उन्‍हें अब उनसे इतना बन पडा जो आगे आता है.... मुझ से Maulana Sanaullah Amritsari (1868- 1948)मुलाकात हो गयी होती तो यह अध्‍याय लिखने की नौबत न आती,,, यहीं यह जानकारी भी मिलती है कि लगभग 25 वर्ष बाद तक यानि जुलाई 1924 तक हक प्रकाश के 5वें एडिशन तक भी मौलाना को जवाब का इन्‍तजार रहा,  लिखते हैं एक दो नम्‍बरों पर स्‍वामी दर्शना नंद ने लिखा फिर वह दुनिया सिधार गये (देखें हक प्रकाश, हिन्‍दी पृष्‍ठ 18)

 जब मुसलमान भाई इसे आर्य-समाजियों की जानकारी में लाते हैं  तो बजाये इसका अध्‍ययण करने के  वो श्री चमूपति की  लगभग 35 वर्ष पश्‍चात उर्दू  ही में लिखी गयी पुस्‍तक چودہویں کا چاند 'चौदहवीं का चाँद'  का नाम इसके खन्‍डन पुस्‍तक के रूप में बताते हैं,  नेट में भाईयों के प्रचार और प्रसार के कारण यह पुस्‍तक आसानी से उपलब्‍ध है।
इस पुस्‍तक के सम्‍पादकीय से ज्ञात होता है कि मौलाना के जवाब में लगभग 35 साल बाद यह  पुस्‍तक प्रकाशित हुई थी  (देखें 'चौदहवीं के चांद' के पृष्‍ठ 29 पर सम्‍पादकीय---- ''श्री पण्डित चमूपति जी ने सन 1937 में देहत्‍याग किया ''चौदहवीं का चांद'' पुस्‍तक उनके अन्तिम वर्षों में लिखी गई एक उत्‍तम पुस्‍तक है'' )

जिन्‍होंने इस किताब पर एक दृष्टि डाली होगी वह यह बात आसानी से समझ लेंगे कि उक्‍त पुस्‍तक में केवल एक लेख ऐसा है जिस खन्‍डन या समीक्षा के रूप में माना जा सकता है, दो-तीन जगह किताब में इधर-उधर मौलाना का नाम घुसा कर ,   'हक़ प्रकाश पर एक दृष्टि' विषय से जो लेख है उसे  हक प्रकाश पर लिखा गया कह सकते है,  दूसरा इस से अगला लेख 'सत्‍यार्थप्रकाश' के प्रमाणों की चमत्‍कारिक शुद्धता'  दयानन्‍द जी के कुरआन के अनुवाद और मोलाना के अनुवाद पर बहस है , जिसको पाठक समझ ही नहीं सकता, क्‍यूंकि उसमे  यह नहीं बताया गया कि कितने नम्‍बर की समीक्षा में दया जी ने यह अनुवाद किया है तो उसी नम्‍बर पर मौलाना ने यह आपत्ति की है, बस इधर-उधर से आधी-अधूरी पंक्तियां उठाकर लेख तैयार कर दिया गया है, जिससे आपत्ति, समीक्षा और आक्षेप में उलझ कर कुछ समझ में नहीं आता फिर भी अनुवाद बारे में हम इतना तो जानते ही हैं कि स्‍वयं दया जी मामूली अरबी भी नहीं जानते  और दुर्भाग्‍य से उर्दू में कुरआन का शाब्दिक अर्थ वाला कुरआन ही उपलब्‍ध था जिसे हिन्‍दी में कराकर उस पर दया जी ने समीक्षायें की हैं। आज की तरह लगभग 40 भाषाओं के अलावा हिन्‍दी में कुरआन उपलब्‍ध होता तो यह सम्‍मुलास जो दया जी की किताब में बाद में जोडा गया था, शायद लिखा ही नहीं जाता।



35 वर्ष बाद उपरोक्‍त एकमात्र लेख को पुस्‍तक 'हक प्रकाश' का जवाब, कैसे कहा जा सकता है? इस्‍लाम की मुखालफत में लिखे गये आर्टिकलों के बीच में एक लेख रख दिया गया,  जो कमी दिखी वो प्राक्‍कथन, भूमिका,सम्‍पादकीय से बढाकर  मशहूर कर दिया गया कि ऐसा जवाब दिया कि आज तक इस्‍लामी दुनिया इसका जवाब न दे सकी। यह भ्रम तब तक ही बना रहना था जब तक इसे गौर से पढा न जाता,  जिन्‍होंने तीनों पुस्‍तकें अर्थात सत्‍यार्थ प्रकाश और हक प्रकाश और 'चौदहवीं का चाँद' पढी हैं वह जानते हैं कि दयानन्‍द जी की  कुरआन पर 159 समीक्षाओं पर हक प्रकाश में 159  (160)  ही जवाब दिये गये हैं बल्कि 1 सवाल अपनी तरफ से देकर उसका भी जवाब दिया है,  पण्डित जी की किताब जवाब तो तब कहलाती जब फिर श्री चमूपति जी 159 मौलाना के जवाब में क्रम से कमियां निकाल कर उन्‍हें गलत साबित करते। या फिर कुछ नम्‍बरों वाली समीक्षा में कमी निकालते, बिना नम्‍बर बताये इधर-उधर से चंद लाइनें उठा लीं जिनके आगे-पीछे का पाठक को पता नहीं होता , हैरत की बात है। आज यह पुस्‍तक उर्दू में उपलब्‍ध होती तो एक नहीं अनेक जवाब दिए जा सकते थे, हिन्‍दी की ओर इस्‍लामी दुनिया ने अभी कम ध्‍यान दिया है, लेकिन चिंता की बात नहीं,  इस  बहाने हमें मौका मिला तो  एक दृष्टि हम भी डालते हैं,  नतीजा आपके सामने है--
सौभाग्‍य से आज यह तीनों पुस्‍तकें जिन पर हमने नजर डालनी है हिन्‍दी में इन्‍टरनेट से Download की जा सकती हैं, इनको पढने के बाद क्रमवार अपने विचार प्रस्‍तुत कर रहा हूं,  ज्ञानियों से आशा है कि थोडा ध्‍यान से पढेंगे और मेरी खताओ की निशान्‍दही करेंगे
http://haqprakash.blogspot.com/

One
श्री चमूपति जी की पुस्‍तक 'चौदहवीं का चाँद' को मौलाना सनाउल्‍लाह अमृतसरी की पुस्‍तक 'हक प्रकाशः बजवाब सत्‍यार्थ प्रकाश' का जवाब बताया जाता है, जबकि पुस्‍तक में यह  लिखा गया है

        पंडित जी  पृष्‍ठ 237 पर लिखते हैं- 
''हमें प्रसन्‍नता है कि 'हक प्रकाश' का उत्तर किसी आर्य समाजी ने नहीं लिखा, लिखते तो फिर अहले इस्‍लाम को शिकायत होती''
यह पढने के बाद भी इस किताब को मौलाना की किताब का खन्‍डन कहा जा सकता है ? बात मानने में संकोच है तो यह पढें-

  • श्रीमान पण्डित चमूपति जी Pt Chamupati  'हक़ प्रकाश पर एक दृष्टि' विषय के बन्‍तर्गत पृष्‍ठ 244 पर लिखते हैं-  ''मौलाना की पुस्‍तक का खण्‍डन इसलिए भी उचित नहीं समझा कि मौलाना की लेखनी में मदिरागृह का शिष्‍टाचार बरता गया है और हमारा लक्ष्‍य दार्शनिक विवाद में ही रहने का है।''
मदिरागृह का जवाब इसी किताब के एकमात्र लेख की लाइनों से समझ लें, पृष्‍ठ 231 पर से ज्‍यूं का त्‍यूं ः
स्‍वामीजी! आपने बडी गलती खाई कि मैदाने मुनाजिरा(शास्‍त्रार्थ) को समाज मन्दिर समझ गए कि जिस प्रकार अनाप-शनाप समाज में कह देने पर कोई पूछ नहीं सकता इसी भाँति मुनाजिरा(शास्‍त्रार्थ) में न होगी मगर यह कभी न सूना था कि-
संभलकर पाँव रखना मैकदे में सरस्‍वती साहब
यहाँ पगडी उछलती है इसे मैखाना कहते हैं
शायर मौलाना ने इसमें क्‍या गलत कह दिया, किसी शायर से हम भी मालूम करते हैं, पाठक भी करें ।


मुकददस रसूल बजवाब रंगीला रसूल . लेखक: मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी
  • '''रंगीला रसूल''' १९२० के दशक में प्रकाशित पुस्तक के उत्तर में मौलाना सना उल्लाह अमृतसरी ने तभी उर्दू में ''मुक़ददस रसूल बजवाब रंगीला रसूल'' लिखी जो मौलाना के रोचक उत्‍तर देने के अंदाज़ एवं आर्य समाज पर विशेष अनुभव के कारण भी बेहद मक़बूल रही ये  2011 ई. से हिंदी में भी उपलब्‍ध है। लेखक १९४८ में अपनी मृत्यु तक '' हक़ प्रकाश बजवाब सत्यार्थ प्रकाश''  की तरह इस पुस्तक के उत्तर का इंतज़ार करता रहा था ।

two
पूरी किताब ऐसे विषयों पर लिखी गयी है जिनका हजारों बार जवाब दिया जा चुका जैसे कि स्‍वर्ग, नरक, जिहाद, शिरक, फरिश्‍ते आदि।

इस 'हक़ प्रकाश पर एक दृष्टि'  विषय की तरफ मियां भाईयों ने अगर ध्‍यान दिया तो इस पर उठे सवालों का ही आर्य समाज को जवाब देना मुश्किल हो जायेगा, विश्‍वास ने हो तो नमूना पेश है ऐसा सवाल, जिसका जवाब भी हमारे पास है, आर्य समाजी केवल चुप रहेंगे-
'chaudhvin ka chand' book के पृष्‍ठ 229 पर लिखते हैंः
......मौलाना ने स्‍थान-स्थान पर धाँधली से इन शब्‍दों का प्रयोग महर्षि के सम्‍मान में कर दिया है, पृष्‍ठ 7 पर सत्‍यार्थ प्रकाश का निम्‍न उद्धरण देकर कि-- इससे बढकर झूठा मत और कौन हो सकता है।

श्री चमूजी जिसे सत्‍यार्थ प्रकाश का उद्धरण बता रहे हैं, और अधूरा इधर दे रहें हैं,  पूर्णरूप में देख लो यह 'सत्‍यार्थ प्रकाश' में है कि या नहीं? हम जानते हैं आप देख कर चुप रहोगे, क्‍यूंकि नहीं मिलेगा, क्‍यूं नहीं मिलेगा इसका जवाब हम देते हैं, यह सत्‍यार्थ प्रकाश का पूरा उद्धरण गायब कर दिया गया है, लेकिन फिकर न करो 14 सम्‍मुलास की 73 समीक्षा में था यहां देखेंः हम पढवा देते हैं, इस नम्‍बर की urdu hindi english में रामपाल जी ने परिवर्तन साबित किया है, पूरा उधर मिलेगा नहीं इधर पढो फिर शायद खुद ही समझ लो क्‍यूं हटाया  गया है?

-----जो मज़हब दूसरे मज़हबों को कि जिनके हजारों करोडों आदमी मानने वाले हो झूटा बतलादे और अपने को सच्‍चा जाहिर करे, उससे बढकर झूटा और मज़हब कौन हो सकता है?  क्‍योंकि किसी मज़हब में सब आदमी बुरे और भले नही हो सकते, एक तरफा डिग्री देना जाहिलों का ही मज़हब है Chapter 14 of  comments No. 73  Satyarth Prakash
http://dayanandonved.blogspot.com/2010/12/blog-post.html

पाठक ध्‍यान दें तब दयानन्‍द जी पुस्‍तक लिख रहे थे तब भी करोडों कौन थे और आज अरबों की संख्‍या में कौन है, उनको बुरा कहने वालों से बढकर झूठा और मज़हब कौन हो सकता है?

three
पृष्‍ठ 234 पर शब्‍दों के बिगाडने का आरोप लगाते हुए ऐसा समझाते हैं कि मौलाना ने एक जाति के पवित्र धर्मग्रन्‍थ का वर्णन करते हुए अत्‍यंत महापुरूष के सम्‍बन्‍ध में नाराज़ को नाराज, महाराज को माराज लिखा है जबकि पण्डित जी जानते होंगे कि उर्दू में महाराज शब्‍द में अगर छपाई में नीचे की लटकन जैसी हिन्‍दी में नीचे की र होती है अगर दिखायी न दे तो माराज पढा जाता है ध्‍यान दें यह बिगाड कर नहीं लिखे गये, छपायी की त्रुटि मात्र हैं, और नाराज़ शब्‍द हिन्‍दी या उर्दू में बिन्‍दी न दिखायी देने पर नाराज हो जायेगा, यह प्रस्‍तुत पुस्‍तक कम्‍पयूटर की फाइल से बनी है इसमें छपायी वाली कमियां तो नहीं है, लेकिन शब्‍दों को बिगाडने वाला आरोप इधर अधिक उपयुक्‍त हो सकता है, उधर तो छोटी से 'ह' की लटकन गायब तो आपको बुरा लगा, और इधर पंडित जी की पुस्‍तक में अत्‍यंत महापुरूष नहीं बल्कि सारे आलम के मालिक ईश्‍वर जिसके मानने वालें 50 से अधिक देशों में बहुसंख्‍यक हैं उसे अर्थात 'अल्‍लाह' शब्‍द को बार-बार एनेक बार बिगाड कर पेश किया गया है, पूरी 'ह' ही सारी किताब में कई स्‍थान पर एक ही पृष्‍ठ पर कहीं है और कहीं नहीं है, भाषा का ज्ञान रखने वाले भलिभांति जानते हैं इससे अर्थ कुछ का कुछ होगया है-

'शिरकः प्रभु सत्ता  में मिलावट' लेख में लिखते हैं-
1-यदि अल्‍लामियाँ के अतिरिक्‍त  (पृष्‍ठ 111 नीचे से 11 लाइन)
2- अल्‍ला‍मियाँ को उत्‍पादकों में उत्तम (पृष्‍ठ 111 नीचे से 7वीं लाइन)

अगले ही पृष्‍ठ 112 पर
A अल्‍लामियाँ  में सबसे पहले (पृष्‍ठ 112 में 16वीं लाइन)
B अल्‍ला‍मियाँ का हो जाता है (पृष्‍ठ 111 नीचे से11वीं लाइन)

पृष्‍ठ 216 पर
1-अल्‍लामियाँ  का घर  (पृष्‍ठ 216 नीचे से तीसरी लाइन)
2- अल्‍ला‍मियाँ  की हो रही है  (पृष्‍ठ 216 नीचे 5वीं लाइन)
three-a
चेलों की चालाकी? 1979 तक हाथ से लिखी यानि किताबत से लिखी हक प्रकाश में महाराज शब्‍द ठीक लिखा है, मगर 2003 ई. की कम्‍पयूटराईज्‍ड उर्दू में प्रूफ रिडिंग की गलती के कारण 'माराज' मिलता है, फिर यही एडिशन हिन्‍दी में कम्‍यूट्राइज्‍ड आया तो उसमें भी, नाराज लिखा मिलता है,
इससे यह साबित होता है कि यह लेख भी स्‍वर्गीय? चमुपति जी का नहीं क्‍यूंकि यह पिछले 10-15 साल में आई प्रुफ त्रुटि है जिसे आजके चेलों ने पढकर पंडित जी के नाम से एतराज जड दिया, शर्म तो आती ही नहीं, अपनी अज्ञानता को भी पंडित जी के नाम से पेश कर दिया,
नोट- यह आपत्ति पुराना और नया छपा 'हक प्रकाश' जवाब नम्‍बर 23 और 100 से साबित होती है

Four
यह कैसा खण्‍डन है
मौलाना को हंसी उडाने वाला साबित करने के लिए एक पैराग्राफ से दो पंक्तियां उठाकर अलग-अलग स्‍थान पर देकर पाठकों को असल कहानी से दूर रखा है,  (चौ. पृष्‍ठ 234  मौलाना को हंसी उडाने वाला साबित करने के लिए एक लाइन नकल करते हैं ''पढे न लिखे नाम मुहम्‍मद फ़ाजि़ल।''

6 लाइन के पेराग्राफ के बाद इसी पृष्‍ठ पर फिर-
''अर्बी की शब्‍दावली से सर्वथा अज्ञानी और कुरआन के खण्‍डन का ठेका, आंखें चमगादड की और सूरज से लडाई।''

पाठक इस यादगारी स्‍वयं बतायें इसमें क्‍या अनुचित है, असल प्रराग्राफ उसकी कहानी के साथ हम देते हैं-
आर्य समाजी विद्वान पंडित लेख राम जी ने अपनी पुस्‍तक 'तकजीब'  में एक मुसलमान अर्थात 'बुरहान' के सम्‍पादक के बारे में लिखा था कि ''संस्‍कृत से तो परिचित नहीं और वेदों पर आलोचना करते हैं''
 मौलाना की दृष्ठि में यही बात दयानन्‍द जी पर लागू होती है, सभी जानते हैं वो कुरआन की मूल भाषा अरबी से परिचित नहीं थे फिर भी कुरआन पर आलोचना करी।
मौलान ने उस पेरे में दो शब्‍द को बदल के जो आर्य ने मुसलमान संपादक को लिखा था वापस कर दिया-
पढे न लिखे नाम मुहम्‍मद फाजिल अरबी क ख से भी परिचित नहीं कोरा जाहिल और कुरआन के अध्‍ययन का ठेका, आखें चमगादड की और सूरज से लडाई झगडा 
फुटनोट में मौलाना ने लिखा-  ''इस वाक्‍य में हमने केवल दो शब्‍दों में हेर-फेर किया है संस्‍कृत की बजाए अरबी और वेद की बजाए कुरआन लिखा है''  इस वाक्‍य में अगला वाक्‍य जोड कर यादगारी बना दिया, ऐसी स्थिति में यानि जो ग्रंथ की भाषा का ज्ञान न रखते हुए उस ग्रन्‍थ पर आलोचना करे, तब 'आपत्तिकर्त्ता के बारे में यह बराबर कहा जाने लगा, सनाउल्‍लाह अमृतसरी जी पाठकों से चाहतें हैं कि आपत्तिकर्त्ता के बारे में कहे गये इस वाक्‍य पर ''पाठक नयाय के साथ हमारी सराहना करें''।

Five
उपरोक्‍त पेराग्राफ के प्रकाश में पंडित जी के पुरूस्‍कार की घोषणा पर दृष्टि डालते हैं।
यह वाक्‍य ''हठधर्मी की बुद्धि‍ अन्‍धकार में फंसकर नष्‍ट हो जाती है।'' पृष्‍ठ 241 पर पंडित जी कहते हैं ''सर्त्‍याप्रकाश की भूमिका में यह वाक्‍य ज्‍यों का त्‍यों दिखा दें तो मनमाना पुरस्‍कार प्राप्‍त करें''
धयान दिजिए यह नहीं कहा इस भाव अथवा मतलब का वाक्‍य वहां नहीं है। असल बात है इस वाक्‍य को मौलाना ने लगभग हर तीसरे पृष्‍ठ पर दिया है,  जिससे पाठक को हिदयात देना मकसद होता था कि स्‍वामी जी की शिक्षा पर अमल कर लो हठधर्मी न बनो। अगर यह बात आपत्ति करने की है तो फिर हम भी करते हैं,
पाठक उपरोक्‍त लेखराम जी के बयान को देखें, श्री चमूपति जी ने शुद्ध हिन्‍दी में लिखा
''अर्बी की शब्‍दावली से सर्वथा अज्ञानी और कुरआन के खण्‍डन का ठेका''
हक प्रकाश में यह उर्दू  वालों के ही अन्‍दाज में ऐसे मिलता है-
 ''अरबी क ख से भी परिचित नहीं कोरा जाहिल''  इस वाक्‍य को देकर हम भी कह सकते हैं कि इस वाक्‍य को ज्‍यों का त्‍यों दिखाओ और मनमाना पुरूस्‍कार प्राप्‍त करो। 
काबिले अफसोस है कि हम बार-बार करोडों-अरबों की मान्‍यता के अनुसार पंडित जी को स्‍वर्गवासी लिखना चाहता हूं मगर आर्य समाज का स्‍वर्ग पर विश्‍वास न होने के कारण स्‍वर्गवासी नहीं लिख पा रहा,  आर्यों की मान्‍यता अनुसार अब जहां चमूपति जी हैं वह लिखना हमें खुद कुबूल नहीं।

Six
'माँ के क़दमों के नीचे जन्‍नत' इस्‍लाम की मशहूर शिक्षा है, जिसकी दुशमन भी तारीफ करते हैं मगर श्री चमूपति जी को इसकी भी खबर नहीं, दयानन्‍द जी ने जो चौदहवें सम्‍मुल्‍लास में किया है, यह अग्रलिखित उसका नमूना है, 'कुरआन में नारी का रूप' लेख में पृष्‍ठ 111, पर जो लिखते हैं, हम तो समझे नहीं इसमें वह क्‍या कमी निकाल रह हैं आप देखें और बताएं फिर हमें उनकी आपत्ति बतायें 
''और माँऐ दुध पिलायें अपनी सन्‍तानों को पूरे दो वर्ष। और यदि वह (बाप) दूध पिलाने की अवधि पूरा कराना चाहे। और बाप पर (जरूरी है)  उनका खिलाना, पिलाना और कपडे-लत्‍तों को (प्रबन्‍ध)''
इस पर लिखते हैं '‍रिवाज के अनुसार माँ का रिश्‍ता इतना ही है औलाद से, इससे बढकर उनकी वह क्‍या लगती है?' पृष्‍ठ 111
पंडित जी के चन्‍द्रमा ने कितना अन्‍धेरा किया  है इस बात  में  असल बात की हवा भी नहीं लगने दी, कुरआन की हर बात की तरह यह भी आप बेशकीमती पायेंगेः
Quran - 2:232
और जब तुम स्त्रियों को तलाक़ दे दो और वे अपनी निर्धारित अवधि (इद्दत) को पहुँच जाएँ, तो उन्हें अपने होने वाले दूसरे पतियों से विवाह करने से न रोको, जबकि वे सामान्य नियम के अनुसार परस्पर रज़ामन्दी से मामला तय करें। यह नसीहत तुममें से उसको की जा रही है जो अल्लाह और अन्तिम दिन पर ईमान रखता है। यही तुम्हारे लिए ज़्यादा बरकतवाला और सुथरा तरीक़ा है। और अल्लाह जानता है, तुम नहीं जानते॥
2:233
और जो कोई पूरी अवधि तक (बच्चे को) दूध पिलवाना चाहे, तो माएँ अपने बच्चों को पूरे दो वर्ष तक दूध पिलाएँ। और वह जिसका बच्चा है, सामान्य नियम के अनुसार उनके खाने और उनके कपड़े का ज़िम्मेदार है। किसी पर बस उसकी अपनी समाई भर ही ज़िम्मेदारी है, न तो कोई माँ अपने बच्चे के कारण (बच्चे के बाप को) नुक़सान पहुँचाए और न बाप अपने बच्चे के कारण (बच्चे की माँ को) नुक़सान पहुँचाए। और इसी प्रकार की ज़िम्मेदारी उसके वारिस पर भी आती है। फिर यदि दोनों पारस्परिक स्वेच्छा और परामर्श से दूध छुड़ाना चाहें तो उनपर कोई गुनाह नहीं। और यदि तुम अपनी संतान को किसी अन्य स्त्री से दूध पिलवाना चाहो तो इसमें भी तुम पर कोई गुनाह नहीं, जबकि तुमने जो कुछ बदले में देने का वादा किया हो, सामान्य नियम के अनुसार उसे चुका दो। और अल्लाह का डर रखो और भली-भाँति जान लो कि जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह उसे देख रहा है
Mothers may breastfeed their children two complete years for whoever wishes to complete the nursing [period]. Upon the father is the mothers' provision and their clothing according to what is acceptable. (Quran- 2:233)
यह तो देख लिया कि बात किया थी उसे पंडित जी ने कैसे पेश किया, अब जरूरी हो गया कि यह भी बताया जाये की मां बाप बारे में इस्‍लाम की किया शिक्षायें हैं ताकि आज के पढे-लिखे भ्रमित होने से बचें,  यह इसलामी शिक्षा  तो अधिकतर जानते हैं कि मां के पैरों के नीचे जन्‍नत है, मगर यह कम जानते हैं कि बाप को स्‍वर्ग यानि जन्‍नत का द्वार भी बताया गया है, इस से हमें यह शिक्षा मिलती है इनकी सेवा जन्‍नत में जाने के लिए अनिवार्य है,

माता-पिता हमारे लिए ईश्वर के एक अनुपम और अनूठे वरदान के समान है। यह हमारे लिए ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ नेमत हैं। मां-बाप के बारे में मुहम्मद रसूलुल्लाह (सल्ल.) ने बताया कि ”अल्लाह के बारे में मुहम्मद रसूलुल्लाह (सल्ल.) ने बताया कि ''अल्लाह को सबसे अधिक महबूब समय पर नमाज़ पढ़ना फिर अपने मां-बाप से अच्छा व्यवहार करना'' है।'' आपका यह भी कथन है कि ''मां-बाप का अनादर बड़े पापों में एक बड़ा पाप है।''
मां-बाप ही नहीं बल्कि मुहम्मद रसूलुल्लाह (सल्ल.)ने मां-बाप के दोस्तों से भी सदव्यवहार करने को कहा है।
आपने कहा, ”सर्वश्रेष्ठ वह है जो अपने मां-बाप के मित्रों से भी प्रेम करे।

कुरआन से, मां बाप के बारे में, बहुत-सो में से चंद हुक्‍म यह हैं
Quran - 17:23
तुम्हारे रब ने फ़ैसला कर दिया है कि उसके सिवा किसी की बन्दगी न करो और माँ-बाप के साथ अच्छा व्यवहार करो। यदि उनमें से कोई एक या दोनों ही तुम्हारे सामने बुढ़ापे को पहुँच जाएँ तो उन्हें 'उँह' तक न कहो और न उन्हें झिझको, बल्कि उनसे शिष्‍टापूर्वक बात करो
4:7
पुरुषों का उस माल में एक हिस्सा है जो माँ-बाप और नातेदारों ने छोड़ा हो; और स्त्रियों का भी उस माल में एक हिस्सा है जो माल माँ-बाप और नातेदारों ने छोड़ा हो - चाह वह थोड़ा हो या अधिक हो - यह हिस्सा निश्‍चित किया हुआ है
2:180
जब तुममें से किसी की मृत्यु का समय आ जाए, यदि वह कुछ माल छोड़ रहा हो, तो माँ-बाप और नातेदारों को भलाई की वसीयत करना तुमपर अनिवार्य किया गया। यह हक़ है डर रखनेवालों पर॥
4:36
अल्लाह की बन्दगी करो और उसके साथ किसी को साझी न बनाओ और अच्छा व्यवहार करो माँ-बाप के साथ, नातेदारों, अनाथों और मुहताजों के साथ, नातेदार पड़ोसियों के साथ और अपरिचित पड़ोसियों के साथ और साथ रहनेवाले व्यक्ति के साथ और मुसाफ़िर के साथ और उनके साथ भी जो तुम्हारे क़ब्ज़े में हों। अल्लाह ऐसे व्यक्ति को पसन्द नहीं करता, जो इतराता और डींगें मारता हो
6:151
कह दो, "आओ, मैं तुम्हें सुनाऊँ कि तुम्हारे रब ने तुम्हारे ऊपर क्या पाबन्दियाँ लगाई है: यह कि किसी चीज़ को उसका साझीदार न ठहराओ और माँ-बाप के साथ सद्‍व्यवहार करो और निर्धनता के कारण अपनी सन्तान की हत्या न करो; हम तुम्हें भी रोज़ी देते है और उन्हें भी। और अश्‍लील बातों के निकट न जाओ, चाहे वे खुली हुई हों या छिपी हुई हो। और किसी जीव की, जिसे अल्लाह ने आदरणीय ठहराया है, हत्या न करो। यह और बात है कि हक़ के लिए ऐसा करना पड़े। ये बाते है, जिनकी ताकीद उसने तुम्हें की है, शायद कि तुम बुद्धि से काम लो।
14:41
हमारे रब! मुझे और मेरे माँ-बाप को और मोमिनों को उस दिन क्षमाकर देना, जिस दिन हिसाब का मामला पेश आएगा।"

Seven

पाठकों से धोका-
    मौलाना ने फरिशतों के सम्‍बन्‍ध में अलग-अलग तरह के सवालों के इतने सारे जवाब दिऐ हैं कि उनकी एक अलग पुस्‍तक बन जाये, मगर श्री चमूपत‍ि को नजर आया तो फरिश्‍तों के सम्‍बन्‍ध में यह नजर आया-  लेख 'हक प्रकाश पर एक दृष्टि ही में लिखते हैं---
ऋषि दयानन्‍द का प्रश्‍न है खुदा ने शैतान क्‍यों उत्‍पन्‍न किया?  मौलाना कहते हैं--''जैनियों को क्‍यों उत्‍पन्‍न किया?'' (चौ. पृष्‍ठ 241)
पंडित जी ने अधूरा सवाल लिखकर, पाठकों यह भ्रम देना चाहा कि मौलाना ने यह एक पंक्ति जवाब में कही हो, असल सवाल यूं है-
सत्‍यार्थ प्रकाश की आपत्ति - 14/11
इससे साबित हआ कि खुदा सर्वज्ञाता नहीं अर्थात, अतीत, वर्तमान और भविष्‍य की बातें पूरे तौर पर नहीं जानता, जानता तो शैतान को पैदा ही क्‍यों किया?......आदि

आपत्ति पर मौलाना का जवाब- 
भोले पंडित जी!  किस आयत से मालूम हुआ कि खुदा को पता नहीं। यदि शैतान के पैदा करने से खुदा बे इल्‍म साबित होता है तो परमेश्‍वर ने जैनियों को क्‍यों पैदा किया? जो आपके कथनानुसार मूर्ति पूजा को आरंभ करने वाले हुए जिनके बारे में सत्‍यार्थ प्रकाश में आप लिखते हैं--
''मूर्ति-पूजा का जितना झगडा चला है वह सब जैनियों के घर से निकला है और पाखन्डियों की जड़ यही जैन-धर्म है (सत्‍यार्थ प्रकाश प्रथम, उर्दू एडिशन, पृष्‍ठ-544, अध्‍याय 12, नम्‍बर 119)
और सुनिए-- ईश्‍वर ने सुलतान महमूद( गजनवी और गाजी महमूद धर्मपाल) को क्‍यों पैदा किया जिसने आर्यवरत की काया पलट दी और बताइए ईश्‍वर ने पुरानों के लेखकों को क्‍यों पैदा किया जिन्‍होंने (आपके कथनानुसार) सारे पुराण गप्‍पों से भरकर आर्य वरत को गुमराह कर दिया।
और सुनिए..... ईश्‍वर ने मुसलमान क्‍यूं बनाए कि वेदिक धर्म का सारा ताना-बाना ही बिखर कर रह गया। जब आप इन सवालों के जवब देंगें तो हम भी बताऐंगे कि शैतान को क्‍यों पैदा किया?

असल बात यह है कि शैतान किसी की गुमराही के लिए कोई तर्क या कारण नहीं है बल्कि वह केवल एक बुरे सलाकार की तरह बुरे विचारों और कामों को सुझाव देने वाला और लुभाने वाला है अतएव उसका यह बयान पूरे का पूरा कुरआन में मौजूद है तनिक ध्‍यान से सुनिए।

जैसी दुनिया में और बहुत-सी बुरी संगतें होती हैं ऐसे ही शैतान भी एक बुरा साथी है इससे अधिक कुछ नहीं। इस बुरी संगत के प्रभाव से बचने के लिए ईश्‍वर ने एक इलाज बताया है बडा ही शक्तिशाली जो हकीकत में बडा प्रभावी है वह है अल्‍लाह का जिक्र (गुण-गाण करना) अतएव कुरआन में इसका भी उल्‍लेख है--
अर्थात ईश्‍वर के भले बन्‍दों पर शैतान का कोई दाव नहीं चल सकता। जो लोग अल्‍लाह के जिक्र में समय गुजारते हैं। और बुरे कामों से बचते हैं शैतान उनका कुछ नहीं बिगाड सकता। हां जो लोग बेहुदा बकवास और बुरी संगत में समय नष्‍ट करते हैं उन्‍हीं पर शैतान अपना जोर चला पाता है।

(सत्‍यार्थ प्रकाश, पृष्‍ठ 541 को जरा ध्‍यान से पढें [[ 12/27 बौद्ध पर टिप्‍पणि--''वेद और ईश्‍वर न मानने के कारण इनकी ऐसी हालत हुई'' आदि ]] )

अत- शैतान का उदाहरण बिल्‍कुल विष का सा समझो। जैसा कि ईश्‍वर ने विष पैदा करके उसका इलाज भी बता दिया है। ऐसा ही शैतान पैदा करके उसका प्रभाव बताकर इलाज (तौबा और रसूल का अनुसरण) बता दिया है। शैतान की विस्‍तार से बहस की जानकारी के लिए तफसीर सन्‍नाई भाग1 हाशिया खतमुल्‍लाह में देखें।

हां याद आया कि दुनिया में इस समय करोडों मुसलमान, करोडों ईसाई, बौद्ध, यहूदी आदि कौमें ईश्‍वर के ज्ञान (वेद) को नहीं मानते बल्कि उसे मूर्ति का स्रोत जानते हैं तो परमेश्‍वर कैसा विवश है कि इनको सीधा नहीं कर सकता। उसके तेज में कोई फर्क तो है। आखिर किस-किस से बिगाडे और किस किस को पकडे?

स्‍वामी जी! ''जीव आत्‍मा अपनी इच्‍छा की मालिक है'' (देखो सत्‍यार्थ प्रकाश, अध्‍याय7, नम्‍बर 48) धार्मिक मामलों में ईश्‍वर ने छूट दी हुई है जिसका जी चाहे आज्ञा पालक हो जो चाहे न हो,
सुनो! कुरआन मजीद बताता है--
''जो चाहे ईमान लाए और जो चाहे काफिर बने। (सूरह कहफ - 29)
Sarya samaj

Eight
 चमूपति जी ने तो  पुस्‍तक का खण्‍डन  जरूरी नहीं समझा, परन्‍तु आप मानते हो यह hak prakash का यह पुस्‍तक 14 वीं का चांद  खन्‍डन है तो फिर बताओ लाहौर गजट में छपी दया जी के बारे में राय का जो पृष्‍ठ 328 पर है, खण्‍डन कर्त्ता   क्‍या जवाब लिखते हैं-
  • ''आचरण में दयानन्‍द के बराबर शायद ही कोई हुआ हो। एक सिरे से आपने सब पर गालियों की वर्षा की है चेले चांटे भी इसी रास्‍ते पर लग गए हैं। कोई कैसी ही पाजी बदमाश आवारा क्‍यों न हो आर्य में दाखिल हुआ और फरिश्‍ता बना। बूढे से बूढ ऋषि हिन्‍दू पंडित को गाली देने में भी इन लोगों को शर्म नहीं आती।''  (रिसाला, सनातन धर्म गजट लाहौर अगस्‍त 1897)
Nine
या फिर हक प्रकाश में  में पृष्‍ठ 329 पर दी गयी आर्य समाज और दया जी के बारे में गांधी जी की टिप्‍पणि का क्‍या खण्‍डन  किया गया है?
  • गांधी जी अपने अख़बार ‘यंग इंडिया‘ में लिखते हैं-
  • ‘‘मेरे दिल में दयानन्द सरस्वती के लिए भारी सम्मान है। मैं सोचा करता हूं कि उन्होंने हिन्दू धर्म की भारी सेवा की है। उनकी बहादुरी में सन्देह नहीं लेकिन उन्होंने अपने धर्म को तंग बना दिया है। मैंने आर्य समाजियों की सत्यार्थ प्रकाश को पढ़ा है, जब मैं यर्वदा जेल में आराम कर रहा था। मेरे दोस्तों ने इसकी तीन कापियां मेरे पास भेजी थीं। मैंने इतने बड़े रिफ़ार्मर की लिखी इससे अधिक निराशाजनक किताब कोई नहीं पढ़ी। स्वामी दयानन्द ने सत्य और केवल सत्य पर खड़े होने का दावा किया है लेकिन उन्होंने न जानते हुए जैन धर्म, इस्लाम धर्म और ईसाई धर्म और स्वयं हिन्दू धर्म को ग़लत रूप से प्रस्तुत किया है। जिस व्यक्ति को इन धर्मों का थोड़ा सा भी ज्ञान है वह आसानी से इन ग़लतियों को मालूम कर सकता है, जिनमें इस उच्च रिफ़ार्मर को डाला गया है। उन्होंने इस धरती पर अत्यन्त उत्तम और स्वतंत्र धर्मों में से एक को तंग बनाने की चेष्टा की है। यद्यपि मूर्तिपूजा के विरूद्ध थे लेकिन वे बड़ी बारीकी के साथ मूर्ति पूजा का बोलबाला करने में सफल हुए क्योंकि उन्होंने वेदों के शब्दों की मूर्ति बना दी है और वेदों में हरेक ज्ञान को विज्ञान से साबित करने की चेष्टा की है। मेरी राय में आर्य समाज सत्यार्थ प्रकाश की शिक्षाओं की विशेषता के कारण प्रगति नहीं कर रहा है बल्कि अपने संस्थापक के उच्च आचरण के कारण कर रहा है। आप जहां कहीं भी आर्य समाजियों को पाएंगे वहां ही जीवन की सरगर्मी मौजूद होगी। तंग और लड़ाई की आदत के कारण वे या तो धर्मों के लोगों से लड़ते रहते हैं और यदि ऐसा न कर सकें तो एक दूसरे से लड़ते झगड़ते रहते हैं।   (अख़बार प्रताप 4 जून 1924, अख़बार यंग इंडिया, अहमदाबाद 29 मई 1920) 

उक्‍त पुस्‍तक में तो कोई खण्‍डन नहीं,  लेकिन हक प्रकाश के 25 वर्ष बाद 1925 ई. में सारे इस्‍लामी जगत का तारीफ हासिल करने वाली मौलाना किताब ''मुकद्दस रसूल - बजवाब रंगीला रसूल'' में  मौलाना लिखते हैं उसका खन्‍डन या समर्थन हम खुद ही करवा देते हैं,,,, गांधी जी ने गज़ब पर गज़ब यह किया कि यह भी, लिख दिया किः
इस्‍लाम छोटा नहीं है। हिन्‍दुओं को भुगती के साथ इसका मुताला  करना चाहिए। फिर वह इसके साथ मुहब्‍बत करेंगे। जिस तरह मैं करता हूं, (अनुवाद यंग इंडिया दर पर्ताप, 4 जून 1924)
खुदा ने आर्यों में एक मोतबर गवाह पैदा कर दिया। जिसने महात्‍मा गांधी जी की यानी पंजाब के बहुत बडे लीडर लाला लाजपत राये जी ने सुइटज़र्लेंड (युरोप) से एक मजमून अपने अखबर वन्‍दे मात्रम लाहोर में शाये कराया जिसका इक्‍तबास यह है--
''मैं 1882 ई. के नम्‍वबर में आर्य समाज का मेम्‍बर बना और 1920 ई. में मैं ने अपना ताल्‍लुक एक गोना अलेहदा कर लिया, मैं अपने 38 साल के अन्‍दरूनी तजुर्बे से यह कह सकता हूं कि महात्‍मा गाँधी ने आर्य समाजियों पर जो नुक्‍ताचीनी की है वह उनकी मुहब्‍बत पर दलालत करती है। इस में बहुत कुछ सच्‍चाई है, आर्य समाजियों पर वाजिब है कि बजाये खफगी के रेजुलेशन पास करने के शान्ति और ठंडे दिल से इस पर गौर करें''। (साभार, आर्य गज़ट लाहोर, 7 अगस्‍त 1924)

Ten
या फिर हक प्रकाश में  में पृष्‍ठ 328-329  पर आर्यों के कारण सनातन धर्मियों की बेबस हालत का क्‍या  खण्‍डन  चोदहवीं के चांद में किया गया है?
मुसलमानों में खुदा न करे यदि ऐसा सम्‍प्रदाय हो जो कुरआन को सर पर लिए‍ फिरे और कहे कि नमाज, रोज, हज, ज़कात सब के सब बेकार हैं बल्कि इनके करने-कराने वाले सब के सब जाहिल है और स्‍वार्थी हैं और इस दावे पर कुरआनी आयतों को अपने कर्मों की तरह सियाह करे तो उस समय हमारे मुसलमान भाई और अन्‍य धर्मों वाले  (आर्यों के कारण) हिन्‍दुओ की बेबस हालत महसूस करेंगे (अखबार आम, लाहौर प्रकाश्‍ान 4 मार्च 1897 ई.)
Eleven

पंडित जी कसमों के बारे पृष्‍ठ 224 पर गलत लिखते हैं कि ''कुरआन में कसमें खाना निषिद्ध है-- कह कि कसमें मत खाओ (सूरते नूर 53)
जब हम इस नम्‍बर पर कुरआन की आयत को देखते हैं तो पता चलता है कि जिनके बारे में पहले से पता है झूठे हैं उनको कहने के लिए, अल्‍लाह अपने सन्‍देष्‍टा को हिदायत कर रहे हैं न कि आम लोगों को क़सम से मना कर रहे हैं-
और (ऐ रसूल) उन (मुनाफेक़ीन) ने तुम्हारी इताअत की ख़ुदा की सख्त से सख्त क़समें खाई कि अगर तुम उन्हें हुक्म दो तो बिला उज़्र (घर बार छोड़कर) निकल खडे हों- तुम कह दो कि क़समें न खाओ दस्तूर के मुवाफिक़ इताअत (इससे बेहतर) और बेशक तुम जो कुछ करते हो ख़ुदा उससे ख़बरदार है   (Quran- 24:53)

कसम के बारे में अल्‍लाह का हुक्‍मः 
तुम्हारी उन क़समों पर अल्लाह तुम्हें नहीं पकड़ता जो यूँ ही असावधानी से ज़बान से निकल जाती है। परन्तु जो तुमने पक्की क़समें खाई हों, उनपर वह तुम्हें पकड़ेगा। तो इसका प्रायश्‍चित दस मुहताजों को औसत दर्जें का खाना खिला देना है, जो तुम अपने बाल-बच्चों को खिलाते हो या फिर उन्हें कपड़े पहनाना या एक ग़ुलाम आज़ाद करना होगा। और जिसे इसकी सामर्थ्य न हो, तो उसे तीन दिन के रोज़े रखने होंगे। यह तुम्हारी क़समों का प्रायश्‍चित है, जबकि तुम क़सम खा बैठो। तुम अपनी क़समों की हिफ़ाजत किया करो। इस प्रकार अल्लाह अपनी आयतें तुम्हारे सामने खोल-खोलकर बयान करता है, ताकि तुम कृतज्ञता दिखलाओ (Quran-5:89)
क़सम खाना उस समय यानि आज से लगभग 1430 वर्ष पूर्व भी अरब में बेहद पसंद किया जाता था, कुरआन उस स्‍थान की भाषा में आ रहा था तो उनके रिवाज का खयाल रखा गया, आज यह पूरे विश्‍व का रिवाज, आदत बन चुकी है, यहां तक की कोर्ट में क़सम खाये बगैर आपकी बात नहीं सुनी जायेगी, यकीं और विश्‍वास को बढाने के लिए अपनी प्‍यारी चीज की कसम खाना विश्‍वास को बढा देता है, 


पंडित जी इस मशहूर नगमे के शअर को सुन लेते तो शायद इस पुस्‍तक 'चौदहवीं का चाँद' में कसमों का चेप्‍टर शरीक न करते, जिसमें मुहब्‍बत करने वाला अपनी मुहब्‍बत को उसके खूबसूरती का यकीं दिलाने के लिए कहता है-
चौदहवीं का चाँद हो या आफताब हो,
जो भी हो तुम खुदा की क़सम लाजवाब हो 

twelve
आज के चेलों का ऐतिहासिक ज्ञान
आज के चेलों की वेबसाइट पर चौदहवीं का चांद का जो परिचय दिया गया है, यह उसका स्‍क्रीनशाट है, जिस में सबसे बडा झूठ सत्‍यार्थ प्रकाश को 1883 की लिखी बताया गया है, जबकि हम आज नेट से आसानी से जान सकते हैं सत्‍यार्थ प्रकाश 1875 में प्रकाशित हुई और इस वर्ष अर्थात 1883 में तो  स्वामी दयानन्द सरस्वती (१८२४-१८८३जी दूसरी योनी में चले गये थे,  दूसरा झूठ यह है कि हक प्रकाश के फोरन बाद ही इस पुस्‍तक को छपा बताया गया है, जो कि इसी पुस्‍तक से इस लेख में लगभग 35 वर्ष बाद छपा होना साबित हो चुका है,  वाह क्‍या ज्ञान है,  बिल्‍कुल स्‍वामी जी जैसा, जिसमें कोई शक नहीं रह जाता


यह वही चेले हैं जिन्‍हों ने दयानन्‍द जी की मौत जहर खाने से हुई  को 40 साल तक राजा की रखेल के जहर देने की कहानी का प्रचार किया, लाला लाजपतराय ने यही लिखा, मगर दयानन्‍द जी को महान बनाने के लिए 40 साल बाद नेपाली नोकर के जहर देने की कहानी को मशहूर किया गया, मगर सच एक दिन सामने आकर ( Urdu पृष्‍ठ 263-283) रहता है

Thirteen
सनातन धर्म का ठीक से जवाब न मिला

दयानन्‍द‍ तिमिरभास्‍कर  Jwalaprasad misra











पुस्‍तक स्‍वामी दयानन्‍द और जैन धर्म  Swami dayanand our jain dharm पण्डित हंसराज शास्त्री  को जवाब नहीं मिला केवल कुछ बहस आर्य समाजी ''दयानंद कुतर्क तिमिरतरणि''  पर कर सके




मौलाना सनाउल्‍लाह अम़तसरी  Maulana Sanaullah ने 
159 दयानन्‍द जी की किताब पर हक प्रकाश में 160 (1 अपनी तरफ से बढाकर)जवाब दिये
4 किताबें गाजी महमूद की जवाब में 4 किताबें लिखीं
116 तर्के इस्‍लाम के जवाब में गाजी महमूद धर्मपाल को 116 उत्तर 'तुर्के इसलाम' पुस्‍तक में दिए, जिसे उसने कुबूल किया और फिर आर्यों को भेंटस्‍वरूप अपनी पुस्‍तक 'वेद और स्वामी दयानन्‍द' प्रस्‍तुत की थी
रसूल पर लिखी आर्य समाजी की किताब का मुकद्दस रसूल का जवाब दिया गया, जिसका वापस जवाब आज तक नहीं दिया गया,
कादियानियों ने जवाब और सवाल में कई किताबें लिख रखी हैं,  किसी का भी खण्‍डन नहीं किया गया लेकिन एक लेख से पूरी किताब का जवाब साबित किया जा रहा है, हैरत की बात है
फिर भी जवाब पे जवाब आखिर कब तक सवाल करते रहोगे, कभी जवाब देना भी सीखोगे,  अगर दूसरे धर्मों  वालों ने भी यह आदत डाल ली यानि सवाल-सवाल पे सवाल करने शुरू किए तो क्‍या जवाब दोगे नियोगी भाईयों ज़रा सोचो, वैसे ताजा सवालों की शुरूआत फिर से हो चुकी, कुछ समय पूर्व एक डाक्‍टर अनवर ने 40 किए, और  सतीशचंद गुप्‍ता नामी महाशय  बारे में तो लगता है आर्य समाज को लाजवाब कर देंगे, या शायद कर दिया है हमारा तो उन्‍हें पढकर मानना है कि कर दिया है।  गुप्‍ता जी की पुस्‍तक ''सत्‍यार्थ प्रकाशः समीक्षा की समीक्षा'' यहां से Downloads की जा सकती है  Cotn...Mk

इस वि डियो और इसके साथ पूरी सत्‍यार्थ प्रकाश की सीरीज को देख कर बहुत दुख होता है, आपके क्‍या विचार हैं?